Sunday, January 26, 2014

माडर्न आर्ट

तुम जो सदियों से आधे हो
आधे नंगे, आधे पेट, आधे जीवन
तुम्हारे आंसुओं को पी जाते हैं
वे शराब की तरह
तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों को
टांग देते हैं ड्राइंग रूम में
मातृत्व को देते हैं इनाम
आर्ट गैलरियों में
तुम्हारी त्रासदी कहानी
बेच देते हैं बाजारों में
बंदर बना कर नचा देते हैं
तुमको परेडों में
तुम्हारे जंगलों में बो देते कंक्रीट
तुम्हारे लहू से लिख देते विकास गाथा
धरती खो जाने के डर से
तुमने आसमान नहीं देखा
अब न राम आएंगे, न जामवंत
स्वयं जगानी होगी शक्ति
लंका दहन को.
Rajkumar Singh

Friday, January 17, 2014

लहू भी अब लाल नहीं होता

तुम्हारे गुनाहों का कोई हिसाब नहीं होता
हद तो ये है कि लहू भी अब लाल नहीं होता.

लहू कुछ इस कदर ठंडा हो गया है
आंख को तो छोड़िए, रगों में भी उबाल नहीं होता.

अहसान नमक बन के नसों में दौड़ता है
फिर भी लहू अब तक हलाल नहीं होता.

तुम्हारी मसीहाई में कत्ल हो जाते हैं बच्चे
और तुमसे कोई सवाल नहीं होता.

सदियों से सजदे में झुका है सिर
क्यों तेरा जलवा जलाल नहीं होता.

काफिले लुटते रहे, हम गजल कहते रहे
रहबर तेरी रहबरी पर फिर भी सवाल नहीं होता.

डेमोक्रेसी का मजमा तो देखो दोस्तो
बंदरों से भी अब सलाम नहीं होता.

लहू का स्वाद जब से मुंह लग गया है
हुक्मरानों के हाथों में अब जाम नहीं होता.

तुम्हारी एक वहशत से मिट जाती हैं नस्लें
और फिर भी तुम पर कोई इलजाम नहीं होता.   


कभी नारों से हिल जाती थी धरती
अब मर भी जाओ तो ये काम नहीं होता.
Rajkumar Singh

Tuesday, January 14, 2014

आधा चांद

जिंदगी मुझे आधे चांद सी लगती है
आधे वक्त पूरा होने की ख्वाहिश
आधे वक्त खुद को बचाने की कोशिश
हर वक्त कशमकश सिर्फ कशमकश

मैं अपने हिस्से का आधा चांद लेकर रोज आता हूं छत पर
इस इंतजार में कि कभी तो तुम आओगी
अपने हिस्से का चांद लेकर अपनी छत पर
और हम देखेंगे पूरणमासी की रात

आधे चांद के डोले से हर रात गिरते हैं सपने
जो देखे थे हमने और तुमने
लेकिन जिंदगी हमेशा पालकी में नहीं चलती है
हर डोली कहीं तो उतरती है

मुझे टूटा चांद भाता है
ये लंबा साथ जो निभाता है

कुछ धुंध, कुछ अंधेरा तो चाहिए

रात कितनी भी जगमग सही, पर सवेरा तो चाहिए
जिंदगी में कुछ धुंध, कुछ अंधेरा तो चाहिए

आसमां में कब तक उड़ेंगे
धूप से कब तक लड़ेंगे
कुछ दरख्तों को अब तो बचाइए
परिंदों को इक बसेरा तो चाहिए

मंदिरों की मसजिदों की सीढ़ियां ऊंची बहुत हैं
धर्म ने दीवारें खींची बहुत हैं
मयकदों पे यूं न तोहमत लगाइए
काफिरों को आसरा तो चाहिए

अक्लमंदों के ठिकाने बहुत हैं
देश में मैकाले की दुकानें बहुत हैं
कहीं कबीर को भी जिंदा रहने दीजिए
अनपढ़ों को कुछ सहारा तो चाहिए

जीने को गलतफहमियां, हंसने को बेवकूफियां हैं जरूरी
याद आने को दूरियां भी हैं जरूरी
और फिर तरक्की को दायरा तो चाहिए
जिंदगी में कुछ धुंध कुछ अंधेरा तो चाहिए