Tuesday, February 14, 2017

वेलेंटाइन डे पर-

मैंने इश्क को छुआ है, गुलाब की तरह
मैंने इश्क को पिया है, शराब की तरह
जीने मरने के हर दर्द से गुजर कर
उसे महसूस किया है, हसीं ख्वाब की तरह. (C)- RK

Sunday, December 4, 2016

राजा और फकीर

राजा बनना आसान है, फकीर बनना कठिन. वैसे ही जैसे चंद्रगुप्त बनना आसान है चाणक्य बनना कठिन. खुद मुक्त होना सरल है, दूसरों को मुक्ति का मार्ग दिखाना बहुत कठिन. योग, साधना और तपस्या के बल से चमत्कार दिखाने वाले योगी तो कई मिल जाएंगे, पर बुद्ध, कबीर, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और गांधी की तरह खुद कष्ट सहकर लोगों के दुख दूर करने वाले फकीर और साधु कम मिलेंगे. इस देश में फकीरों की महान परंपरा रही है. बुद्ध, कबीर, निजामुद्दीन औलिया, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानक, महात्मा गांधी से लेकर मदर टेरेसा तक कई महान लोग हुए हैं जिन्हें हम फकीर, साधु, सन्यासी, सुधारक कुछ भी कह सकते हैं. इन सबने लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखाया.
तो मोदी जी जब आप कहते हैं कि मैं तो फकीर हूं तो हो सकता है आप ऐसा वाकई में सोचते हों. लेकिन ये आसान नहीं है, ये कोई जुमला भी नहीं है. फकीर का मतलब झोला उठाकर पहाड़ों पर चले जाना ही नहीं है. अगर आप अंबेडकर को देखें तो वो भी एक फकीर ही थे, जिन्होंने सदियों से दबे कुचले लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखाया. आज भी कई जगहों पर ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी रोजी रोटी चलाते हुए भी दूसरों को मुक्ति का रास्ता दिखाते हैं. फकीरों या साधु-सन्यासियों का सबसे बड़ा गुण यही रहा कि उन्होंने निजी उन्नति को छोड़कर लोगों की उन्नति को अपनाया. बुद्ध चाहते तो चक्रवर्ती राजा बन सकते थे. विवेकानंद चाहते तो अपने योग और साधना के बल पर खुद की मुक्ति का मार्ग पाते, पहाड़ों या गंगा किनारे बैठ कर आत्मा से परमात्मा का मिलन कराते और अपने योग के दम पर लोगों को चमत्कार भी दिखाते. जैसा कि विवेकानंद ने खुद कहा भी था कि उनका मन साधना और परालौकिक क्रियाओं में खूब रमता था, लेकिन उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने कह दिया था कि खुद अपनी मुक्ति तक सीमित रहकर स्वार्थी मत बनो तुम्हें तो इस देश की गरीब जनता को मुक्ति का मार्ग दिखाना है. विवेकानंद इसी राह पर चलते हुए तमाम बीमारियों का शिकार हुए. इसी तरह रामकृष्ण परमहंस जिन्हें गले का कैसर था ने अपनी योगिक क्रियाओं से इसे ठीक करने से मना कर दिया था. क्योंकि ऐसा करना उनका निजी स्वार्थ होता. बाद में बेहद तकलीफ के बीच उनकी मौत हुई.
तो मोदी जी जब आप कहते हैं कि झोला उठाकर चल दूंगा, फकीर हूं. तो आपको देश के इन फकीरों को समझना जरूर चाहिए. झोला उठाकर पहाड़ों पर चैन से खुद की उन्नति करना फकीरी नहीं है. फकीर बनना है तो मदर टेरेसा से कुछ सीखना होगा आपको. बिना जाति-धर्म का भेद किए दुखियों की सेवा करना सीखना होगा. तो प्रधानमंत्री बनना आसान है, फकीर बनना नहीं. यही वजह है कि देश के इतिहास में राजाओं, शहंशाहों को लोगों ने भुला दिया है पर फकीरों की शमां रौशन है.
वैसे फकीरी का ढोंग भी इन दिनों खूब हो रहा है. बहुत सारे बिजनेसमैन और प्रोफेशनल्स भी गेरुआ पहनकर फकीर बनने का नाटक करते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि ये अच्छे प्रोफेशनल्स हैं जो लोगों को बेहतर जीवन जीने का रास्ता बताते हैं. पर ऐसा वे निस्वार्थ नहीं करते. हालांकि ये कोई गलत बात नहीं है. गलत सिर्फ ये है कि आप खुद को फकीर, साधु कहते हैं. साफ साफ कहें कि प्रोफेशनल हैं. प्रोफेशनल और कारोबारी होना गलत नहीं है.
राजकुमार

Friday, November 25, 2016

भरा भरा मन

न जाने कब से कितना कुछ भरा है
दराज़ों में कुछ सूखे हुए फूल
डायरी पर चढ़ी मोटी सी धूल
और एक जख्म जो अब तक हरा है.

सलाइयों से बुना हुआ प्यार
चौराहे पर ठिठका गुबार
एक तोहफा अब तक उधार
सब कुछ वैसा ही धरा है.

ट्रेन की खिड़की से गिरता रुमाल
हर नजर से उछलता सवाल
नहीं मिला जो उसका मलाल
जिंदगी, ये सौदा क्या अब भी खरा है.

मन आज रिसना चाहता है
पत्थर पिघलना चाहता है
एक कांटा निकलना चाहता है
न जाने दिल क्यों इतना डरा है.
-- © राजकुमार

Wednesday, August 3, 2016

क्रोध से प्रेम करो

तो हमें यही सिखाया गया है कि गुस्से पर काबू रखो. हमारे मां-बाप, बड़ों और गुरुओं ने हमेशा यही कहा. पर क्या इस पर काबू हो पाया. न हो पाया न हो पाएगा. क्योंकि तरीका ही गलत है. बरसों से यही गलत तरीका अपनाया जा रहा कि काबू करो गुस्से पर. पर क्या कभी किसी को काबू में रखकर रोका जा सका है? पकड़ ढीली पड़ते ही निकल भागेगा. या फिर जब कभी तुम कमजोर या वो मजबूत हुआ तो छूट जाएगा पकड़ से. फिर चढ़ जाएगा तुम्हारे ऊपर. तो क्रोध को खत्म करने का ये तरीका ही गलत है. और हम सदियों से इसी को अपना रहे हैं. फिर भी गुस्सा है कि आ ही जाता है. आम लोगों की क्या बात करें बड़े बड़े साधु संतों को भी आता रहा है. शाप देते रहे हैं. दुर्वाषा रिषि तो इसके लिए जाने ही जाते रहे हैं. कभी कभी तो देवताओं को भी गुस्सा आ जाता है. ग्रंथ यही बताते हैं. तो हमारी आपकी बिसात ही क्या. 
तो फिर कैसे मुक्त करें गुस्से से खुद को. यही तो है असली बात काबू नहीं करना है, मुक्त करना है क्रोध से. तो मुक्ति पकड़ के जकड़ के नहीं की जा सकती. इसके लिए खोलना होगा मन को. तो मैं कहता हूं प्रेम करो क्रोध से. इतना प्रेम कि गुस्सा भी प्रेम बन जाए. जैसे कि ढेर सारे शहद में थोड़ा बहुत कड़वा मिला दो तो वो भी मिठास बनी रहती है. इतना अधिक प्रेम करो कि जो थोड़ा मोड़ा गुस्सा है वो भी प्रेम में समाहित हो जाए और फिर मुक्त हो जाए खुद भी और तुमको भी मुक्त कर दे. जैसे मीरा मुक्त हुईं, जैसे कबीर मुक्त हुए. क्योंकि एक प्रेम ही है जो मुक्त करता है. बाकी सब बांधते हैं. तो क्रोध पर कंट्रोल मत करो क्योंकि ये टंपरेरी व्यवस्था है. क्रोध से प्रेम करो, इतना प्रेम की बस प्रेम ही बचे. गुस्सा भी मुक्त हो और तुम भी गुस्से से. 
सरलानंद 

Saturday, November 29, 2014

प्रवाह

लहरों की रवानी कहीं नहीं जाती
वैसे ही जैसे जवानी कहीं नहीं जाती
देखो ये तो खड़ी है तुम्हारे सामने
समा रही है बच्चों में
नए फूल खिलने को तैयार हैं.

ऊर्जा बन कर बहती है
इस मिट्टी में बसती है                  
बीज से खिलती है
नए पौधों में मिलती है
जवानी कहीं जाती नहीं.

सैनिकों के बूटों में गाती है
लड़कियों की चोटियों में लहराती है
पेड़ से पौधे में समाती है
जवानी कहीं नहीं जाती.

इस सरल प्रक्रिया का हिस्सा बनो
विदाई का सम्मान रखो
बच्चों की उंगली पकड़ दे दो अपनी ताकत
और देखो अपनी जवानी को एक नए रंग में
क्योंकि जवानी कहीं जाती नहीं.
(c) राजकुमार सिंह

Friday, October 31, 2014

आज़माइश

हरेक लम्हे को जीने की ख्वाहिश क्यों है
जिंदगी हर घड़ी तेरी आज़माइश क्यों है.

टुकड़ा टुकड़ा बिक गया ज़मीर सारा
अब यहां उसूल की पैमाइश क्यों है.

दरमियां फासलों के सिवा कुछ भी न बचा लेकिन
कहीं किसी कोने में फिर भी गुंज़ाइश क्यों है.

ताउम्र चेहरे पे कलेंडर सजाए रहे
वक्त फिर भी मुझसे तेरी रंजिश क्यों है.

तुझे छोड़ देने की कसमें खाता हूं रोज
साकी पर मुझ पे तेरी नवाज़िश क्यों है.

इक बूंद आंसू, इक कतरा आह
इश्क में ये अजीब सी फरमाइश क्यों है.

मुहब्बत में ये रवायत भी खूब है
जां के लिए जां देने की ख्वाहिश क्यों है.

हरेक लम्हे को जीने की ख्वाहिश क्यों है
जिंदगी हर घड़ी तेरी आज़माइश क्यों है.


-- (C) राजकुमार सिंह

Friday, October 10, 2014

Alchemist

तुमसे मिलकर निखर गया हूं मैं
खुशबू बनके फिजां में बिखर गया हूं मैं

तुमने जब से निगाह डाली है
कितनी आंखों में अखर गया हूं मैं

तेरी तासीर ही कुछ ऐसी है
बिन सजे ही संवर गया हूं मैं

मांगा कुछ भी नहीं खुदा की कसम
तेरी रहमत से ही भर गया हूं मैं

खोल दो लब उठा भी लो बांहें
आखिरी बार है मर गया हूं मैं

एक पाकीजा सा नूर है तुझमें
बिन इबादत ही तर गया हूं मैं

मेरे महबूब मुझसे मत पूछो
कहां से आया किधर गया हूं मैं

मैं इक परिंदा तू हौसला मेरा
यूं आसमां फतह कर गया हूं मैं

तेरी खामोशी को पढ़ लेना हुनर है मेरा

अलफाज़ सब तेरे हैं गज़ल में भर गया हूं मैं.

Rajkumar