कैसे कैसे इम्तेहां से गुज़रे हैं
मुज़रिम की तरह इस जहां से गुज़रे हैं
ज़िंदगी तेरी इक हंसी की ख़ातिर
हम न जाने कहां कहां से गुज़रे हैं
इश्क तेरा खूबसूरत भरम रखने को
हम दर्द की हर दास्तां से गुज़रे हैं
कब किस मोड़ पर तेरी सदा सुनाई दे
इस आस में हर कूंचा-ए-जहां से गुज़रे हैं
बस ये अख़िरी है फिर नहीं आएंगे लौटकर
ये सोचकर हर बार मैयकदा से गुज़रे हैं
जिंदगी तेरा इक कतरा भी समझ नहीं पाए
कहने को तो सारे जहां से गुज़रे हैं
कैसे कैसे इम्तेहां से गुज़रे हैं
मुज़रिम की तरह इस जहां से गुज़रे हैं
-राजकुमार सिंह
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