सीने में दर्द का
सैलाब दबाए हुए सा है
वो उम्मीदों का परबत
उठाए हुए सा है.
मैदान-ए-जंग में वो जूझता है रोज
जख्मों को करीने से
सिलाए हुए सा है.
तुम उसको जानते बहुत
हो लेकिन
कुछ है जो तुमसे भी
वो छिपाए हुए सा है.
न तुम्हें आना था न
तुम आए ही
महफिल को मगर अब भी
वो सजाए हुए सा है.
इस खाली घर में अब न
आएगा कोई भी
दिया तेरे नाम का
फिर भी वो जलाए हुए सा है.
लोग छूटे, बस्तियां
और कारवां भी
इस बियाबां में इक
फूल वो खिलाए हुए सा है.
हर बार वो कहती है न
आऊंगी पलट कर
पर सांस को अब तक वो
मनाए हुए सा है.
मौत ने कोशिश तो
बहुत की लेकिन
जिंदगी का गीत वो
बजाए हुए सा है.
वो कैसे खुदा तेरे
दर पे दे दस्तक
मुहब्बत को इबादत जो
बनाए हुए सा है.
राजकुमार सिंह.
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