Friday, November 25, 2016

भरा भरा मन

न जाने कब से कितना कुछ भरा है
दराज़ों में कुछ सूखे हुए फूल
डायरी पर चढ़ी मोटी सी धूल
और एक जख्म जो अब तक हरा है.

सलाइयों से बुना हुआ प्यार
चौराहे पर ठिठका गुबार
एक तोहफा अब तक उधार
सब कुछ वैसा ही धरा है.

ट्रेन की खिड़की से गिरता रुमाल
हर नजर से उछलता सवाल
नहीं मिला जो उसका मलाल
जिंदगी, ये सौदा क्या अब भी खरा है.

मन आज रिसना चाहता है
पत्थर पिघलना चाहता है
एक कांटा निकलना चाहता है
न जाने दिल क्यों इतना डरा है.
-- © राजकुमार

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