Friday, August 8, 2014

वो सुबह कब आएगी

बरसों हुए जैसे रोए हुए
कहीं तुम कहीं हम हैं खोए हुए
कहते सुनते हैं पर बात नहीं होती
इस शहर में कभी रात नहीं होती.

लैपटाप से लिपटे हाथ अभी भी नरम हैं
हथेली के इंतजार में पेशानी अभी भी गरम है
अब तो मोबाइल से ही हालचाल मिल पाता है
फ्लैट का दरवाजा बाहर की चाबी से ही खुलता है.

काश ये नजरें कभी टारगेट से हटतीं
बैलेंस शीट से कभी खुशियां निकलतीं
चारों ओर आंकड़ों का तिलस्म गहरा है
वर्कर की हंसी पर टारगेट का पहरा है.

फ्लैट से चांद देखने में रिस्क है
खुश रहने का टाइम फिक्स है
जिंदगी ऐसे ही मेट्रो में कट जाएगी
तुम्हारी आएगी तो मेरी स्टेशन से जाएगी.

लेकिन कहानी ऐसे खत्म न हो तो बेहतर
लाखों लोगों की आहों में कुछ हो तो असर
जिंदगी कभी तो सचमुच मुसकुराएगी
बकौल साहिर, वो सुबह कभी तो आएगी.
राजकुमार सिंह

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