रात
कितनी भी जगमग सही, पर सवेरा तो चाहिए
जिंदगी
में कुछ धुंध, कुछ अंधेरा तो चाहिए
आसमां
में कब तक उड़ेंगे
धूप से
कब तक लड़ेंगे
कुछ
दरख्तों को अब तो बचाइए
परिंदों
को इक बसेरा तो चाहिए
मंदिरों
की मसजिदों की सीढ़ियां ऊंची बहुत हैं
धर्म ने
दीवारें खींची बहुत हैं
मयकदों
पे यूं न तोहमत लगाइए
काफिरों
को आसरा तो चाहिए
अक्लमंदों
के ठिकाने बहुत हैं
देश में
मैकाले की दुकानें बहुत हैं
कहीं
कबीर को भी जिंदा रहने दीजिए
अनपढ़ों
को कुछ सहारा तो चाहिए
जीने को
गलतफहमियां, हंसने को बेवकूफियां हैं जरूरी
याद आने
को दूरियां भी हैं जरूरी
और फिर
तरक्की को दायरा तो चाहिए
जिंदगी
में कुछ धुंध कुछ अंधेरा तो चाहिए
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete